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सन् 1966 की बात है। मेरठ के कॉलेज में आनन्द मार्ग के आचार्य शशि शेखर “धर्म और उसकी अनिवार्यता” विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान समाप्त कर के जब वे बाहर निकले तो एम.एससी.(फिजिक्स) अन्तिम वर्ष में अध्ययनरत एक नवयुवक उनसे मिला और कहा,” मैं भी आपकी तरह संन्यासी बनना चाहता हूं।”
आचार्य जी जानते थे कि संन्यासी का जीवन अत्यन्त कठिन और संघर्षपूर्ण होता है। इसलिए उन्होंने कहा,”तुम समझ भी रहे हो कि तुम क्या कह रहे हो?”
युवक ने मुस्कुरा कर कहा,”मैंने आप का व्याख्यान सुना है और मैं आप से पूरी तरह सहमत हूं कि सनातन धर्म की स्थापना के बिना सभ्य मानव समाज की स्थापना कदापि नहीं हो सकती, इसलिए मैं भी संन्यासी बन कर धर्म का प्रचार करना चाहता हूं।” ‌
आचार्य जी ने उस से कहा,” ठीक है, पहले एम. एस सी. कर लो, फिर संन्यासी बन जाना।”
युवक ने उनकी बात नहीं मानी और कहा,” दुनिया को पढ़े-लिखे लोगों से ज़्यादा धर्म प्रचारकों की ज़रूरत है।”
युवक इतना अधिक दृढ़निश्चयी था कि उसने फौरन दीक्षा लिया और अपने माता-पिता को सूचित किए बिना, संन्यासी बनने के लिए सीधे वाराणसी स्थित आनन्द मार्ग के बुनियादी प्रशिक्षण केन्द्र चला गया।
बाद में वही नवयुवक आचार्य करुणानन्द अवधूत के नाम से विख्यात हुए और बड़े संतप्त हृदय से यह लिखना पड़ रहा है कि 29 नवम्बर को 78 वर्ष की आयु में यह महानायक हम सब को हमेशा के लिए छोड़ कर अचानक इस नश्वर संसार से चल बसा। उस दिन धर्म प्रचार के सिलसिले में वे अररिया (बिहार) स्थित एक मार्गी के घर ठहरे हुए थे। वहीं उन्होंने अन्तिम सांस ली। वहां से उनका पार्थिव शरीर पुण्दाग स्थित आनन्द मार्ग गुरुकुल भवन में ला कर रखा गया था और 30 नवम्बर को मध्याह्न के समय बेलाबुलाय (आनन्द नगर) में अश्रुपूरित आंखों और दुखी हृदय से सैकड़ों संन्यासियों और गृहस्थ मार्गियों की उपस्थिति में उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया गया। उन के निधन से आनन्द मार्ग संगठन की जो अपूर्णीय क्षति हुई है उसकी भरपाई मुश्किल है और यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उन के जैसे वरिष्ठ, कर्मठ, विद्वान और समर्पित संन्यासी के जाने से संगठन का एक युग समाप्त हो गया।
आनन्द मार्ग प्रचारक संघ शुरू से ही विश्व स्तरीय योजना बनाकर सनातन धर्म का प्रचार प्रसार कर रहा है। मार्ग गुरुदेव श्री श्री आनन्दमूर्ति ( जिन्हें उनके भक्त गण प्रेम और स्नेहसिक्त लहजे में बाबा कहते हैं ) ने पूरी दुनिया को नौ सेक्टर में बांटा है। हर सेक्टर में सेक्टोरियल सेक्रेटरी की हैसियत से किसी न किसी ज़िम्मेदार संन्यासी की पोस्टिंग की जाती है। करुणानन्द जी बर्लिन सेक्टर (लगभग पूरा यूरोप), जॉर्ज टाउन सेक्टर (दक्षिण अमेरिका) और हांगकांग सेक्टर ( हांगकांग, सिंगापुर, ताइवान,चीन, जापान और रूस इत्यादि) के सेक्टोरियल सेक्रेटरी रहे। उन्होंने लगभग 90 देशों में घूम घूम कर वहां के हज़ारों लोगों को भगवान शिव द्वारा प्रदत्त तन्त्र साधना सिखलाया। उन्हें भौतिकता की मृगतृष्णा को छोड़ कर सुबह शाम पद्मासन में बैठ कर परमात्मा का ध्यान करना और मांस मदिरा को भूल कर शुद्ध शाकाहारी भोजन करना सिखलाया। बर्लिन सेक्टर में उन्होंने लगभग दस साल तक काम किया। पूरे यूरोप में आनन्द मार्ग को स्थापित करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। योरोप के मार्गी उन्हें पिता तुल्य मानते थे और आज भी उन्हें बड़े सम्मान और स्नेह से याद करते हैं। वे अत्यन्त आकर्षक और चुम्बकीय व्यक्तित्व के मालिक थे। जहां भी जाते 20–25 लोगों का समूह उनके साथ चला करता था। वे दिन रात काम किया करते थे। एक बार बातों ही बातों में मुझे उन्होंने बताया था कि वे दिन भर में कभी 200 और कभी 300 लोगों को दीक्षा दिया करते थे।
सन् 1979 में योरोप में मार्ग के आदर्श को तीव्र गति प्रदान करने और वहां के मार्गियों से मिलने के लिए मार्ग गुरुदेव एक माह की यात्रा पर जर्मनी, फ्रांस, स्पेन, हॉलैण्ड, आइसलैण्ड और नार्वे गए थे। उन के साथ अवधूतों, अवधूतिकाओं और स्थानीय मार्गी भाई बहनों का काफिला चला करता था। बाबा की दिनचर्या और कार्यक्रम का एक एक पल पहले से तय रहता था। सेक्टोरियल सेक्रेटरी की हैसियत से बाबा की देख-रेख के साथ साथ ‌उनकी एक माह की यात्रा के सम्पूर्ण आयोजन की ज़िम्मेदारी करुणानन्द जी को सौंपी गई थी, जो कि हिमालयन टास्क जैसा अत्यन्त दुरूह कार्य था। वह भारत नहीं वरन् विदेश का मामला था और इसलिए उस दौरान उन्हें कई बार बड़ी विषम परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ा। लेकिन स्थित-प्रज्ञ ऋषि की तरह बिना किसी तनाव के, चेहरे पर मधुर मुस्कान लिये हुए उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी को भलि-भांति निभाया।
योरोप से भारत प्रस्थान करने से पहले बाबा ने उन्हें अपने पास बुलाया और बड़े प्यार से कहा,” करुणानन्द, मेरी यात्रा के दौरान तुमने अपनी ज़िम्मेदारी को जिस तरह सुचारू रुप से निभाया है, उस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं। इस बीच तुम ने योरोप के मार्गियों की सुख-सुविधा का जैसा ख़्याल रखा और उनकी जो सेवा की, उसके लिए यहां के लोग सदैव तुम्हारे ऋणी रहेंगे। यहां से जाने से पहले मैं यह भी कहना चाहता हूं कि योरोप में तुम ने धर्म प्रचार का जो महत्वपूर्ण कार्य किया है उसके लिए तुम्हें हमेशा याद किया जाएगा।”
बाबा के ये हार्दिक उद्गगार सुन कर करुणानन्द जी की आंखें डबडबा गईं। उन्होंने कहा,”बाबा, यह सब आपकी कृपा से ही सम्भव हो सका।” और फिर मन ही मन “तव द्रव्यम् जगत् गुरु, तुभ्यमेव समर्पये” की भावना लेकर उन्होंने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया।
केवल योरोप ही नहीं, हांगकांग, ताइवान, जापान, सिंगापुर, मास्को, साओपालो (ब्राज़ील) मतलब यह कि जहां जहां भी वे गए वहां वहां उन्होंने आनन्द मार्ग की धर्म ध्वजा फहराया। वहां के प्रतिष्ठित लोगों को दीक्षा दी। उनके जीवन में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया। एक बार मैं ने उन से कहा था,” दादा, आप को एक बार फिर योरोप ज़रूर जाना चाहिए।”
मेरी बात सुन कर वे हंस पड़े और कहा,” भैया, वे दिन गुज़र गए, वो ज़माना गुज़र गया। सच कहूं, जब भी उन दिनों को याद करता हूं तो यक़ीन नहीं होता कि वहां जो धर्म प्रचार हुआ, जिस तरह हज़ारों लोगों ने दीक्षा लिया, वह सब मैं ने ही किया है। उतना सारा काम बाबा की अहैतुकी कृपा से ही सम्भव हो सका था।”
पिछले 10–15 वर्षों से वे भारत में रह कर मार्ग के आदर्श का प्रचार प्रसार कर रहे थे। भारत में ऐसे कई आनन्द मार्गी हैं जिनके वे पारिवारिक मित्र थे। अभिभावक थे। बीकानेर के डॉक्टर सतपाल उनके अन्तिम दर्शन के लिए फ्लाइट से आनन्दनगर आए थे। डबडबाई आंखों से उन्होंने मुझसे कहा,” आचार्य जी, वे मेरे माता-पिता सभी कुछ थे। उनके बिना मैं अनाथ होकर रह गया हूं।”
अभी हाल ही की बात है। रायपुर में 13,14 और 15 नवम्बर को धर्म महासम्मेलन आयोजित किया गया था जिसमें वे मुख्य प्रवक्ता थे। मुझे उनके प्रवचनों को सारांश में लिखकर प्रेस में देने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी इसलिए मैं हमेशा उनके साथ रहा करता था। अपनी विद्वता को भूल कर कभी-कभी वे मुझसे किसी संस्कृत शब्द का अर्थ पूछते। कभी उर्दू का कोई प्रेरणादायक शेर सुनाने के लिए कहते। उनके स्वभाव में बच्चों जैसी जो सरलता थी वह मैंने कहीं नहीं देखी। धर्म महासम्मेलन में लगभग 2000 से ज़्यादा लोग उपस्थित थे। उनके प्रवचन के दौरान महासम्मेलन के विशाल भवन में पिन ड्रॉप साइलेंस रहा करता था। अध्यात्म जैसे गूढ़ विषय को वे विज्ञान की नवीनतम जानकारी से जोड़कर अपने प्रवचनों की विश्वसनीयता को और अधिक बढ़ा दिया करते थे।‌ इसी तरह की एक जानकारी देते हुए उन्होंने कहा था,” मनुष्य का मस्तिष्क एक तरल पदार्थ पर तैरता रहता है जिसे “ब्लड ब्रेन बैरियर” कहा जाता है। इस सुरक्षा कवच के रहते हुए कोई भी पदार्थ मस्तिष्क को आघात नहीं पहुंचा सकता। लेकिन लहसुन और प्याज मैं उपस्थित “सल्फोन हाइड्रोक्सिलान” उस द्रव्य को हानि पहुंचाते हैं जिसकी वजह से मस्तिष्क की क्षमता बहुत कम हो जाती है और जिसके परिणाम स्वरूप मनुष्य की सोचने समझने की शक्ति अत्यधिक कम हो जाती है। इसलिए आध्यात्मिक साधक को ही नहीं वरन् जनसाधारण को भी लहसुन और प्याज कदापि नहीं खाना चाहिए।”
उनके सारगर्भित प्रवचनों को रायपुर के समाचार पत्रों ने प्रमुखता से छापा था। आठ दस पत्रकार उनसे मिलने भी आए थे। पत्रकारों से उन्होंने कहा था,” आप सब के ऊपर बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है। आपका यह परम कर्तव्य है कि धर्म से सम्बन्धित सकारात्मक बातों को अपने समाचार पत्रों में अधिक से अधिक स्थान दें। याद रखिए मेरे गुरुदेव ने कहा था कि यदि दुनिया को विनाश से बचाना है तो भारत को बचाना होगा और यदि भारत के बचाना है तो हमें अपनी आध्यात्मिक विरासत को पुनर्जीवित करना होगा। अध्यात्म का अर्थ है धर्म साधना करना। धर्म का बाहरी आडम्बर से कोई लेना देना नहीं है। धर्म पूरी तरह आन्तरिक कार्य है। हमारे धार्मिक ग्रन्थ “वसुधैव कुटुम्बकम” की बात कहते हैं। इसलिए जो लोग धर्म की आड़ लेकर मानव मानव के बीच नफरत फैला रहे हैं याद रखना चाहिए कि नफरत की बुनियाद पर आदर्श समाज की स्थापना कदापि नहीं हो सकती। आनन्द मार्गदर्शन के अनुसार समाज के प्रत्येक व्यष्टि को परम पिता परमात्मा को ही अपने जीवन का आदर्श बनाना होगा। सभी लोगों को प्राचीन ऋषि-मुनियों और स्वामी विवेकानंद की तरह सुबह-शाम पद्मासन में बैठकर धर्म साधना करनी होगी। पतन शील समाज को बचाने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है।”
रायपुर में आठ दस दिनों तक वे हम सब के साथ थे। एक बार उन्होंने मुझ से कहा था,” आज कल मेरी ज़बान लड़खड़ाने लगी है। मुझे संस्कृत के लगभग 300 श्लोक याद थे। उन्हें भी भूलता जा रहा हूं। मुझे लगता है कि इस जीवन में मेरा कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है।”
मैं ने उन्हें झिड़कते हुए कहा था,”अभी आप को बहुत कुछ करना है। ऐसी बातें आप को कदापि नहीं सोचना चाहिए।”
मुझे क्या पता था कि उनके मुंह से उनका प्रारब्ध कह रहा था और नियति उन्हें हम से अचानक छीन लेगी। आनन्द मार्ग दर्शन पुनर्जन्म पर विश्वास करता है। आत्मा अमर होती है। शरीर जब साथ नहीं देता है तो वह उसे छोड़ कर नया शरीर धारण कर लेती है। मुझे विश्वास है कि करुणानन्द भी पुनर्जन्म लेकर पुनः इस धरा धाम पर आएंगे और दुगने जोश-ख़रोश से बाबा के मिशन को आगे बढ़ाएंगे। उनके प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही होगी कि विश्व में फैले हुए उनके दीक्षा भाई बहनें और उनके साथ धर्म प्रचार करने वाले संन्यासी गण उनसे सम्बन्धित अपने अपने संस्मरणों को लेखनीबद्ध करें। वे प्रेरणादायक प्रसंग जनसाधारण को धर्म पर पर चलने की प्रेरणा देंगे। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ इस पुरोधा संन्यासी का सदैव ऋणी रहेगा। बाबा अपने शिष्यों से अक्सर कहा करते थे:-

जहां जब तू आया था सब हंसते थे तू रोता था
जहां में काम कर ऐसा कि सब रोएं तू हंसता था

उनके पार्थिव शरीर का अन्तिम दर्शन करते समय उनके होंठों पर बच्चों जैसी जो मुस्कान मैं ने देखी है वह बाबा के कथन को प्रमाणित करती है।
‌ (आचार्य अनिमेषानन्द अवधूत )