- (विजयादशमी पर विशेष)
🌷 *यथार्थ विजयोत्सव कब?* 🌷
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प्राचीन संस्कृत शब्दकोष में वर्ष में छ: ऋतुओं का उल्लेख हैं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त, शीत और बसन्त। किन्तु, भारत में अनेक स्थानों, विशेष कर समुद्रतटीय स्थानों और पूर्वी भारत में चार ऋतुएँ ही मुख्य हैं। ये हैं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद और शीत। बंगाल में शीत ऋतु समाप्त होते-होते गर्मी शुरु हो जाती है। इसलिए बसन्त ऋतु यहाँ पन्द्रह दिन के लिए भी स्थायी नहीं रहती और हेमन्त तो शीत का अंग है।
मनुष्य जब अपने अधिकार की प्रतिष्ठा के लिए संग्राम करता है तब वह सबसे अधिक उपयुक्त समय चुन लेता है। शरद काल में बंगाल में ‘आमन’ धान (धान की एक जाति) कट जाती है, सब कोई जान जाते हैं कि इस साल आमन धान की फसल कैसी होगी। यहाँ पर स्मरणीय है कि पहले बंगाल में धान ही प्रमुख फसल थी, गेहुँ या रबी फसल कम होती थी। प्रकृति भी इस समय अपने उपयुक्त साज से सज उठती है, नदियों में पानी भरा रहता है, काश-शिउली इत्यादि विभिन्न प्रकार के फूल भी खिल उठते हैं। ये फूल बंगाल के अपने प्राचीन फूल हैं, जैसे वटवृक्ष भी बंगाल का अपना है। बंगाल ही इन सब का मूल निवास है। तो सभी तरह से प्रकृति थालियां सजाकर मनुष्य की आरती उतारती है और कहती है यही तुम्हारा सबसे अच्छा समय है।
मनुष्य का संग्राम सार्वभौमिक होता है। अर्थात् जीवन के सभी क्षेत्रों में संग्राम करते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। कहना नहीं होगा कि परमपुरुष, मनुष्य को हमेशा प्राणरस तथा प्राणशक्ति देते हैं। यद्यपि सांख्य दर्शन के बहु पुरुष या जन्य-ईश्वर वैसे नहीं हैं, वे निष्क्रिय साक्षी सत्ता मात्र हैं और इस ईश्वर का कोई प्रयोजन मनुष्य” के लिए नहीं है। परन्तु असल में परमपुरुष या पुरुषोत्तम से ही मनुष्य को सार्वभौमिक संग्राम की प्रेरणा मिलती है।
मनुष्य संग्राम करता है प्रतिद्वन्द्वी शक्ति के ऊपर अपने को प्रतिष्ठित करने के लिए। इसी को कहा जाता है जय, और यह जय जब स्थायी होती है तब कहेंगे विजय। विजयादशमी का यह जो उत्सव है यह है ‘विजयोत्सव’। ‘उत्सव’ शब्द आया है उत् सू+अल से। ‘सू’ धातु में अल् प्रत्यय लगाने से ‘सव’ बना है जिसका अर्थ है जन्म ग्रहण करना, और उत् का अर्थ है उच्छलित होकर अर्थात् मनुष्य जब कूदकर, प्राण की उच्छलता से नये जीवन का आस्वादन करता है उसी को कहेंगे ‘उत्सव’।
अब हमलोग यदि गहराई से देखें तो इस उत्सव को विजयोत्सव का नकाब ही कह सकते हैं. विजयोत्सव नहीं। विजयोत्सव की प्रतीक्षा में हमलोग असह्य व्यग्रता लेकर बैठे हुए हैं। समग्र पीड़ित मानवात्मा गम्भीर व्यग्रता के साथ बैठी हुई है कि कब उनके सामूहिक जीवन का विजयोत्सव मनाया जायेगा। हम तो हर साल केवल इसका नकाब ही देखते आए हैं।
मनुष्य का शत्रु कौन है किसके विरूद्ध संग्राम करके विजयोत्सव मनाना होगा? मनुष्य के अपने मन के भीतर अष्टपाश और षडरिपु हैं इन अन्तर्निहित शत्रुओं के विरूद्ध संग्राम के लिए मनुष्य को सारा जीवन आध्यात्मिक साधना करते जाना होगा। यही हुआ मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में शत्रु के विरूद्ध संग्राम। मनुष्य जिस दिन साधना में सिद्ध होगा उस दिन होगा उसके मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में विजयोत्सव।
परन्तु मनुष्य समाज बद्ध जीव है जो मनुष्य, मनुष्य की संगति नहीं चाहता है वह मनुष्य नहीं है। मनुष्य मनुष्यों के बीच रह कर उसकी सेवा करता जायेगा, उसका कल्याण करता जायेगा, मिलजुल कर बड़ा बड़ा काम करता जायेगा, यही यथोचित है। सामाजिक जीवन में मनुष्य का शत्रु वही है जो मनुष्य की शांति के घर में आग लगाना चाहता है, जो उसका घर तोड़ना चाहता है, जो मनुष्य को भूखे प्यासे रखकर, पीड़ा देकर लांछित कर पशु के स्तर में गिराना चाहता है उनके विरूद्ध संग्राम करना होगा। जिस नियम या दुर्नियम के द्वारा इन समाज द्रोहियों को उत्साह मिलता है वह नियम नीति भी मनुष्य का दुश्मन है।
इसलिए यथार्थ विजयोत्सव का पालन मानव समाज तभी करेगा जब मनुष्य के इन सामाजिक शत्रुओं का पतन होगा और ये शक्तियाँ आवाज बुलन्द नहीं करेगी। इसीलिए इस विजयोत्सव को मैं विजयोत्सव का नकाब कहता हूँ। इस विजयोत्सव में तुम लोग व्यष्टिगत रूप से अर्थात् मन-ही-मन और समष्टिगत रूप से अर्थात् जोर-जोर से कहते हुए यही व्रत लो कि जो मानवता का शत्रु है उसके विरूद्ध सीमाहीन संग्राम चलाकर एक दिन वास्तविक रूप में विजयोत्सव का पालन करेंगे। विजयोत्सव का नकाब तो बहुत दिनों से देखते आये हैं अब यथार्थ विजयोत्सव मनाना चाहिए। 🔹
✍🏻श्री श्री आनन्दमूर्ति जी
(कोलकाता -1980
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*✡️ बाबा नाम केवलम् ✡️*